|
|
|
|
::: يا سيدي .. هذا هو الحوار ..!
:::
|
-ياسيدي... |
|
|
(1) |
|
من هذه المحابرْ |
|
|
أوراقنا تجشّأت |
|
فلم تعد |
|
|
أسماعنا تقيّأت |
|
-فهذه الخناجر التي |
|
|
تصافح الحناجرْ! |
|
وهذه الحبائل التي |
|
|
تمتصّ نزف المحبرةْ |
|
في أعماقنا |
|
|
تغوص |
|
تمرّ مرّاً كالصدى |
|
|
كي تنفض الحمائم المعبّرةْ!! |
|
لاتنبت الحقول |
|
|
لكنّها |
|
(2) |
|
|
أو تعيد من في المقبرةْ |
|
إذا شربنا ذلّنا |
|
|
-ياسيدي... |
|
تلك الأقنعةْ |
|
|
أو غيّرت ملامحَ الوجوه |
|
لاتقل لي : إنّه الحوارُ |
|
|
إذا رضينا ب(الخُوار)!! |
|
أدوارها موزّعةْ! |
|
|
- إنّها القضية الممزّعةْ! |
|
تميسُ في الطيالس المرصّعةْ! |
|
|
حتى وإن بدت |
|
لقد سئمنا ذلك الحوارَ |
|
|
-ياسيدي... |
|
إنّني : آليت ألا أسمعهْ |
|
|
لاتلمني |
|
- ياسيدي... |
|
|
(3) |
|
لاتستفزّه حضارة اللغاتْ |
|
|
زماننا |
|
زماننا |
|
|
ولاتعيش فيه سنبلاتْ |
|
كي يحرّر الإنسانَ |
|
|
يعانق الفضاءَ |
|
لعالم الأمواتْ |
|
|
من حياته |
|
لايصنع الحياةْ! |
|
|
زماننا |
|
- ياسيدي... |
|
|
(4) |
|
فربما ينام في أعماقنا (المثنّى) |
|
|
قم وانتفض |
|
زمناً |
|
|
فسيفه الذي قد ضاع منّا |
|
هيّا امتشقه ! |
|
|
في غمده!! |
|
ولا تقل (كأنّا...)!! |
|
|
لاتقل (كأنّه...) |
|
هذا هو الحوارُ |
|
|
- هلاّ فهمت سيدي!! |
|
|
|
|
إن أردت أن تعيدَ (هيبة المثنّى)!! |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
77 |
عدد القراءات |
0 |
عدد مرات الاستماع |
0 |
عدد التحميلات |
0.0 �� 5 |
نتائج التقييم |
|
|
|
|
|
|
البحث عن قصيدة |
|
|
|
|
|
|
|
|
البحث عن شاعر |
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
47482 |
عدد القصائد |
501 |
عدد الشعراء |
2216945 |
عــدد الــــزوار |
33 |
المتواجدين حالياُ |
|
|
|
|
|